इन दिनों हरिशंकर परसाई का लेख बार-बार याद आता है- आवारा भीड़ के ख़तरे. परसाई सिर्फ व्यंग्य नहीं लिखते थे, दुनिया भर के साहित्य और दुनिया भर की घटनाओं पर नज़र रखते थे. उन्होंने एक पतनशील पीढ़ी की सीमाओं को ठीक से पहचाना था. वो कहते थे कि क्रांतिकारी बनने वाली ये भीड़ दहेज लेने में हिचकती नहीं. उनका यह लेख इन शब्दों के साथ ख़त्म होता है.दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी, बेकार युवकों की यह भीड़ ख़तरनाक होती है. इसका उपयोग ख़तरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं. इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया.
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